मन का दरवाजा


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यूंही कभी मेरे मन का दरवाजा खटखटाओ
देखो तो झांककर भीतर क्या दिखता है,
शायद कुछ साथ बिताए पल दिख जाए।
कुछ तुम्हारी, कुछ मेरी अनकही अनसुनी बातें मिल जाएं।
सैंकड़ों खयाल जो होटों पे आ ना सके, शायद तुम्हारी आहट से कुस्मुसा  कर तुम्हें गले लगा लें।
थोड़ा सख़्ती से झकझोडो तो सही, थोड़ी नाराजगी जताओ, शायद जो आंसू दबे हुए हैं आंखो में छलक आएं  सांस थमी है, शरीर शिथिल पड़ा है, एक बार जरा छू तो लो, शायद तुम्हारी छुअन से कुछ पल और जी उठे।
कभी किसी शाम पास बैठो तो सही, घंटो, यूहीं बिना मतलब, चुपचाप, साथ बैठकर क्षितिज को देखेंगे,
शायद जो फासले हैं दरमियान, उस ढलती शाम की तरह मिट जाएं ।

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